Poem : सरहद

इक बार कभी इस सरहद पे
कुछ ऐसा भी हो जाए
तुम भी कुछ गीत सूनाओ
हम भी कुछ गाने गायें
 
बहुत हो चुका खेल खून का
अब थोड़ा संगीत करें
तुम छेड़ो एक नुसरत की धुन
हम भी रफ़ी के गीत कहें
 
माज़ी में तो खून है टपका
तेरा भी और मेरा भी
मेरा भी घर टूटा है
उजड़ा है घर तेरा भी
 
पर कब तक माज़ी के सायों में
मुस्ताक़बिल को क़ुरबान करें
तुम भी छेड़ो कोई ग़ज़ल
हम भी मुरली पर एक तान कसें
 
गीतों की सरहद पे गोलाबारी होगी
ग़ज़लों से जवाब आएगा
किसी को हो ना हो पर हम को है
कभी तो अमन का इंक़लाब आएगा
 
इक बार कभी इस सरहद पे
कुछ ऐसा भी हो जाए
तुम भी कुछ गीत सूनाओ हम को
हम भी कुछ गाने गायें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *