किसी को घर में रहने का दà¥à¤–
किसी को ना रहने के लिठघर होता है
मानवीय पीड़ा का à¤à¥€ आखिर
आरà¥à¤¥à¤¿à¤• सà¥à¤¤à¤° होता है
परदेस में तो हम à¤à¥€ थे
दूसरा देश नहीं तो कà¥à¤¯à¤¾ पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥à¤¤ था
अपने ना चाहे साथ थे
पेट तो लेकिन शांत था
हम को घर पहà¥à¤à¤šà¤¾à¤¨à¥‡ के लिà¤
फिर कà¥à¤¯à¥‹à¤‚ कोई जहाज नहीं आया
हमारे घर जाने के समरà¥à¤¥à¤¨ में
कà¥à¤¯à¥‚ठये सà¤à¥à¤¯ समाज नहीं आया
कà¥à¤¯à¥‚ठवेदी पे चà¥à¤¨à¥‡ के लिठहमेशा
हमारा ही सर होता है
मानवीय पीड़ा का à¤à¥€ आखिर
आरà¥à¤¥à¤¿à¤• सà¥à¤¤à¤° होता है
शराब के ठेकों पर à¤à¥€à¥œ
हाठवो तà¥à¤®à¥à¤¹à¤¾à¤°à¥€ मजबूरी थी
हमारी और तà¥à¤®à¥à¤¹à¤¾à¤°à¥€ पà¥à¤°à¤¾à¤¥à¤®à¤¿à¤•ताओं में
जाने कितनी सदियों की दूरी थी
रोटी राशन के चकà¥à¤•र में
जीवन ही बन गया हाला
और तà¥à¤®à¥à¤¹à¤¾à¤°à¤¾ दà¥à¤ƒà¤– ये है
आज मिला नहीं बà¥à¤°à¤¾à¤‚ड मेरा वाला
कहीं नशे से टूटे घर
और कहीं रहने को टूटा घर होता है
मानवीय पीड़ा का à¤à¥€ आखिर
आरà¥à¤¥à¤¿à¤• सà¥à¤¤à¤° होता है
वोट हमारा à¤à¥€ à¤à¤• ही है
इस जनतंतà¥à¤° के छलावे में
माना दिया है कई बार इस को
आके किसी के बहकावे में
à¤à¤• ही दिल है à¤à¤• ही जीवन
तेरा à¤à¥€ और मेरा à¤à¥€
फिर कà¥à¤¯à¥‹à¤‚ हैं इतना उजियारा
तेरे घर का अà¤à¤§à¥‡à¤°à¤¾ à¤à¥€
तू जितना बहा देता है अपनी नालियों में
उतना तो हम को न उमà¥à¤° à¤à¤° मयसà¥à¤¸à¤° होता है
मानवीय पीड़ा का à¤à¥€ आखिर
आरà¥à¤¥à¤¿à¤• सà¥à¤¤à¤° होता है
This poem is dedicated to Rampukar Pandit, a migrant worker from Bihar who could not see his dying son as he was stuck in Delhi due to Corona.