Poem: थक गया हूँ ज़िंदगी से

थक गया हूँ ज़िंदगी से
और तेरी बंदगी से
कुछ इश्क़ को आराम दूं
कुछ और राहें थाम लूँ
 
 
मुड़ से गये थे रास्ते
वापस उन्हें देखूं ज़रा
खोलूं मैं क्या कमरा नया
टूटा हुआ सीलन भरा
 
आवाज़ें जो घुल गयी थी
ज़िंदगी के शोर में
गाँठि जो पड़ गयी थी
जीवन प्रवाह की डोर में
 
आज़ाद हो जाने दूं मैं उन को
दरिया सा बहता हुआ
उड़ता पंछी सा कहीं
जोगी सा रमता हुआ
 
क्या मिला इस ज़िंदगी में
तुझे प्यार की इस राह पर
रूह के सुर्ख छींटे
बिखरे हैं तेरी चाह पर
 
जाने दूँ उन ख्वाहिशों को
जो जलने से पहले ही बुझ गयी
शाम को ढल जाने दूँ
देखूं फिर से कोई सुबह नयी
 
थक गया हूँ ज़िंदगी से
और तेरी बंदगी से
कुछ इश्क़ को आराम दूं
कुछ और राहें थाम लूँ

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