Poem: मेरी खुशियों का पौधा

कभी बड़ा नहीं होता
कुछ शाखें निकलती हैं
कुछ हरे पत्ते भी
कुछ आशायें भी उगती है
कुछ घर भी बन जाते हैं
मगर फिर कोई झोंका
फिर कोई टुकड़ा धूप का
उड़ा देता है जला देता है
कभी कभी जड़ से ही हिला देता है
और बिखरी हुई शाखों में
फिर से एक बीज ढूंढता हूँ मैं
जिस बीज से उगेगा
फिर एक पौधा
जो मुझ को भी मालूम है
पेड़ नहीं बनेगा
टूट जाएगा बिखर जाएगा
हर बार की तरह अल्प आयु में
पर कोई शक्ति या कोई पागलपन
मुझ से फिर से कहता है
उन बीजों को बिखेर दो
फिर से किसी मिट्टी में
जब कि मुझ को भी ये मालूम है
मेरी खुशियों का पौधा
कभी बड़ा नहीं होता

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