Poem : ज़िंदा रहने का अदब

बुझती आँखों की तड़प
उठती नींदों की थकन
सोच में डूबे हुए
मेरे माथे की शिकन
साथ है मेरे भी कुछ
यादों के पोशीदा सबब
ढूँढते रहते हैं वो
जाने क्या सुबहो और शब
माज़ी की आँधी कोई
रात का चाँद कहीं
ज़ख़्म की वादियों में
दर्द का दरिया कहीं
हर रोज़ के वही
बुझते हुए सिलसिले
घटती हुई ज़िंदगी
बढ़ते हुए शिकवे गिले
खाक में मिलते हुए
जज़्बातों के आशियाँ
कतरा कतरा मिटते हुए
रूह के नाम-ओ-निशान
ढूँढ लेता हूँ मैं भी
कुछ तो जीने का सबब
मौत की राहों में
ज़िंदा रहने का अदब

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