Poem : ज़िंदगी के धागे

ज़िंदगी के धागे
बहुत कमज़ोर हो चले हैं
टूटते तो हैं
पर जुड़ते नहीं
उलझ जाते हैं
एक दूसरे से
कभी लगते हैं
मिलते हुए
कभी लगते हैं
एक विरोधाभास
खुद से ही खुद का
कभी कोई सोच
और कभी कोई और
मन का अंतर्द्वंद
और वो भी अंतहीन
कटुता के प्रतिबिंब कभी
तो कभी लाचारी का प्रवाह
कितना विशाल कितना अथाह
एककीपन के गहरे घाव
अग्नि से जलते हुए भाव
शीतल तट की आस में
अपने ही अस्तित्व को
अनगिनत टुकड़ों में तोड़ते
ना उद्देश्य कोई है शेष
ना शेष है कोई लौ यहाँ
बस है बचा है कुछ
तो अवशेष हैं
स्मृतियों की दीवार हैं
और एक कोने में हैं बचे
कुछ बुने हुए
और कुछ अध्बुने
ज़िंदगी के धागे
बहुत कमज़ोर हो चले हैं

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