Poem: ऊर्जा और परिभाषा

देखा है कभी

सूरज को

उगते हुए

और डूबते हुए

क्या फर्क होता है

थोड़ा रौशनी का

और बहुत कुछ

निकलता है सुबह सुबह

एक जोश के साथ

बहुत ऊर्जा लिए हुए

सुबह का संचार करते हुए

हर कण कण में

एक स्वर्णिम चादर

बिखेर तेता है

प्रकृति के

हर आयाम में

प्राण भर देता है

अंधेरों के भी अंधेरों में

पर ध्यान से देखो

उगते सूरज की

परिधि को

कहाँ सीमा है उस की

ज्ञात ही नहीं होता

एक प्रकाश की आंधी

अपरिभाषित सी

ऊर्जा का एक

विसरण करती है

पर दिन को अगर

निकलना है तो

ढलना भी है

नियम है

जीवन का

क्रम है

जीवन का

सूरज भी इसी क्रम से

निकलता है प्रतिदिन

क्षितिज के उस ओर पे

ढल जाने के लिए

पर ढलते वक़्त सूरज का

रंग ढंग ही कुछ और होता है

कुछ गाढ़ा सा

कुछ नारंगी सा

दिन भर की थकान को

अपने भारीपन में समेटे हुए

विसरण की सीमायें

कुछ अधिक परिभाषित होती हैं

ऊर्जा और परिभाषा के

पर्वतों के मध्य में बहता है जो

निरंतर और सतत

वही जीवन है

वही जीवन है

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