Poem – इस पेड़ पे जो लटकी हैं, वो लाशें नहीं हैं

Badaun-gang-rape-Fifth-accused-arrested

 

 

इस पेड़ पे जो लटकी हैं,

वो लाशें नहीं हैं
खुशबू थीं वो किसी घर की

इज़्ज़त थी किसी के दर की

खेलती थी कभी शायद

इसी पेड़ के तले

छुपती थी कभी शायद

इस पेड़ की ओट में

और शायद कभी इस पेड़ पे

चढ़ के खेल भी होगा

पर आज वो लटकी हैं

एक बेज़ुबान बुत बन के

पेड़ ही अच्छे हैं

शायद इन इंसानों से

जीते जी भी छाँव देते हैं

और मरने के बाद भी

मुक्ति आग देते हैं
इस पेड़ पे जो लटकी हैं,

वो लाशें नहीं हैं
कुछ सवाल हैं वो

बहुत ही तीखे

इस गर्म सन्नाटे में

हम सब के लिये

जाति में बांटते हैं हम

जाने क्यूँ हर इंसान को

धर्म से आंकते हैं हम

इंसान की पहचान को

नज़रें बदल जाती हैं अपनी

लिंग के आधार पर

रोती होगी इंसानियत भी

इस घिनोने अत्याचार पर
इस पेड़ पे जो लटकी हैं,

वो लाशें नहीं हैं
एक धब्बा हैं शर्म का

हमारी नंगी अंतरात्मा पर

एक धब्बा है शर्म का

झूठे सांस्कृतिक गौरव पर

एक धब्बा है शर्म का

काल्पनिक आज़ादी पर

एक धब्बा है शर्म का

लोकतंत्र के छलावे पर

सच्ची अंतरात्मा तो वो है

जब कथनी और करनी मैं न भेद हो

सच्ची संस्कृति तो वो है

जहाँ नारी को वस्तु न समझा जाये

सच्ची आज़ादी तो वो है

जब इंसान में इंसानियत हो

सच्चा लोकतंत्र तो वो है

जहाँ हर व्यकति की इज़्ज़त हो
इस पेड़ पे जो लटकी हैं,

वो लाशें नहीं हैं

 

Apologies to people who find these pictures disturbing, but as a poet my duty is to put the naked truth in front of you.

 

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