वो दरख़्त

वो दरख़्त

अपनी  शाखों पे
अनजान परिंदों के
आशियाने बनाता हुआ

वो दरख़्त

एक अनजान मुसाफिर
राहों की गर्द ले के
थक कर बैठ गया
छाँव देता उस को भी

वो दरख़्त

झूमता रहता था
मदमस्त हवाओं मैं
ख़ुशी से

वो दरख़्त

आशियाँ परिंदों के
दर्द लेकिन दरख़्त का
परिंदे कुतर कुतर के
ज़ख्म देते
कतरे कतरे मैं
फिर भी मुस्कुराता

वो दरख़्त

मुसाफिर को बस
सुध थी
अपनी ही थकान की
क्या पता था उस को
कितना रोया था

वो दरख़्त

हवाओं को भी
क्या था पता
कमज़ोर था इस लिए
उसे देख झूम गया था

वो दरख़्त

बोझिल और अन्दर से कमज़ोर
खोखला और थक हुआ
वो हवाओं के साथ
झूमता नहीं था
शक्ति विहीन था
जिस ओर हवाएं ले जातीं
उसी ओर मुड जाता
मुसाफिरों और पंछियों से
क्या कह सकता था वो
पंछियों को आशियाँ देता
मुसाफिरों को छाँव
हवाओं  के साथ झूमता हुआ
बहुत टूटा हुआ था अन्दर से

वो दरख़्त

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